Friday, May 20, 2011

"PK Khurana and Alternative Journalism"

"PK Khurana and Alternative Journalism"

"Alternative Journalism"

एनजीओ 'बुलंदी' के सर्वेक्षण से निकले अमीरी के 6 सूत्र ::
1. गरीबी के बावजूद छोटी-छोटी बचत करके रुपये जुटाना; 2. बचत को छोटे निवेश में बदलना; 3. खाली समय में अतिरिक्त पढ़ाई करना या कोई हुनर सीखना; 4. किसी समस्या या चुनौती से घबराने के बजाए उसके एक से अधिक हल खोजना; 5. सहकर्मियों को साथ लेकर चलना; 6. अप्रत्यक्ष आय का जुगाड़ करना।

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Sunday, May 15, 2011

PK Khurana and Alternative Journalism

आओ भारत को बनाएं यंगिस्तान!
                                                                                                     पी. के. खुराना

आदमी उम्र से नहीं, विचारों से बूढ़ा होता है। जब हम नये विचार ग्रहण करना बंद कर देते हैं तो हम बूढ़े हो जाते हैं। देश के समग्र विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम अन्य व्यक्तियों के दृष्टिकोण के प्रति दिमाग खुला रखें और उनसे लाभ लेने के लिए आवश्यक माहौल तैयार करें। युवाशक्ति की प्रशंसा इसीलिए की जाती है कि उनमें उर्जा तो बहुत होती है पर पूर्वाग्रह नहीं होता और वे दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति खुले दिमाग से सोचते हैं। अगर देश के सभी नागरिक हर मामले में युवा वर्ग के इसी दृष्टिकोण का अनुसरण करें तो हमारा देश यंगिस्तानबन जाएगा। यंगिस्तानका मतलब है खुला दिमाग, दूसरों के नज़रिये के प्रति सहनशीलता, नई बातें सीखने का जज्बा, काम से जी न चुराना, तकनीक का लाभ उठाने की योग्यता, प्रगति और रोज़गार के नए और ज्य़ादा अवसर, आपसी भाईचारा तथा देश और क्षेत्र का समग्र विकास !

भारतीय संविधान की मूल भावना है, ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार।यानी हमारे संविधान निर्माता हर स्तर पर आम आदमी और सरकार और प्रशासन में उसकी भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। भारतीय प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रणाली की संरचना इस प्रकार की गई थी कि यह एक लोक-कल्याणकारी राज्य बने जिसमें हर धर्म, वर्ग, जाति, लिंग और समाज के व्यक्ति को देश के विकास में भागीदारी के बराबर के अवसर मिलें। क्या यह संभव है कि देश के विकास में नागरिकों की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करके देश में सच्चे प्रजातंत्र का माहौल बनाया जाए? अगर ऐसा हो सका तो यह देश में प्रजातंत्र की मजबूती की दिशा में उठाया गया एक सार्थक कदम सिद्ध होगा।

लोकतंत्र में तंत्र नहीं, बल्कि लोककी महत्ता होनी चाहिए। तंत्र का महत्व सिर्फ इतना-सा है कि काम सुचारू रूप से चले, व्यक्ति बदलने से नियम न बदलें, परंतु इसे दुरूह नहीं होना चाहिए और लोक पर हावी नहीं होने देना चाहिए। जब ऐसा होगा तभी हमारा लोकतंत्र सफल होगा, लेकिन ऐसा होने के लिए हमें अपने आप को बदलना होगा, हर नागरिक को अपने आप को बदलना होगा। यह काम कोई सरकार नहीं कर सकती, प्रशासन नहीं कर सकता, लोग कर सकते हैं। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को काबू में रख सकते हैं।

हमारे देश के सामने कई समस्याएं दरपेश हैं पर आम जनाता में उनको लेकर कुंठा तो रहती है, कोई सार्थक बहस नहीं होती, या फिर इतने छोटे स्तर पर बहस होती है कि उसका प्रशासन और सरकार पर असर नहीं होता, या फिर सिर्फ बहस ही होती रह जाती है।

जीवन में चार तरह की स्वतंत्रताएं महत्वपूर्ण हैं। एक -- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दो -- धर्म की स्वतंत्रता, तीन -- अभावों से छुटकारा और चार -- भय से आज़ादी। भारतवर्ष में हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। लेकिन हमारे देश में अभी अभावों से आज़ादी और भय से आज़ादी एक सपना है। अशिक्षा सेवा, सामान्य चिकित्सा सेवा का अभाव, पीने योग्य पानी की समस्या, सफाई का अभाव, रोज़गार की कमी, भूख और कुपोषण आदि समस्याएं, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि समस्याएं विकराल हैं और आम आदमी को इनसे राहत की कोई राह नज़र नहीं आती। पर क्या सचमुच इनका हल नहीं है? क्या सचमुच इसमें सारा दोष प्रशासन और सरकार का ही है? क्या हम सेमिनार और भाषण से आगे बढक़र कुछ और नहीं कर सकते? क्या हमारे पास इन समस्याओं से छुटकारा पाने का कोई भी साधन नहीं है?

गरीबी और बेरोज़गारी से छुटकारा संभव है, यदि गरीबी और बेरोज़गारी से छुटकारा मिल जाए तो शिक्षा, चिकित्सा, सफाई, पानी, कुपोषण, महंगाई आदि समस्याएं खुद-ब-खुद हल हो जाती हैं। बहुत से लोग अज्ञान के कारण अथवा अपने निहित स्वार्थों की खातिर विकास के विरोध में खड़े नज़र आते हैं। कई एनजीओ और राजनीतिक नेता जानते-बूझते भी विरोध की राह पकड़ते हैं और आम आदमी उनके षड्यंत्र का शिकार हो जाता है।

अभी पिछले ही वर्ष हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में वाणिज्य विभाग के अध्यक्ष डा. विजय कुमार शर्मा, उनकी सहयोगी निशु शर्मा तथा कोटखाई के डीएवी कालेज के रोशन लाल वशिष्ठ ने एक अध्ययन में पाया कि राज्य के उन क्षेत्रों का तेजी से विकास हुआ है जहां औद्योगीकरण आया। प्रदेश के जिन हिस्सों में उद्योगों की स्थापना हुई वहां ढांचागत सुविधाएं, शिक्षा सुविधाएं, सडक़, बिजली, पानी की सुविधाएं, बैंकिंग व्यवस्था, आवासीय व्यवस्था तथा शॉपिंग सुविधाओं आदि में तेजी से विकास हुआ है। इन विद्वानों का मत है कि स्थानीय लोगों द्वारा राज्य में उद्योगों की स्थापना के किसी भी कदम का सदैव विरोध होता रहा है, अत: यह आवश्यक था कि औद्योगिक विकास के कारण होने वाले विकास के उदाहरणों को जनता के सम्मुख लाया जाए ताकि इस संबंध में पाली जा रही मिथ्या धारणाओं को तोड़ा जा सके।

डा. विजय कुमार शर्मा ने इन परिणामों पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘‘यह शोध कार्य इसलिए आरंभ किया गया था ताकि हम हिमाचल प्रदेश में औद्योगीकरण के प्रभावों का पता लगा सकें। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हिमाचल प्रदेश पर्यावरण की दृष्टि से एक संवेदनशील राज्य है और लोगों की धारणा है कि विकास का हर प्रयास राज्य के समग्र संतुलन के लिए हानिकारक होगा। इसके विपरीत, हमारे अध्ययन से यह साबित हुआ है कि उद्योगों के विस्तार ने राज्य में विकास की गति तेज की है। उद्योगों की स्थापना का यह मतलब कतई नहीं है कि वे संतुलन के लिए हानिकारक ही होंगे। इसके विपरीत, उद्योगों के विकास से उन क्षेत्रों तथा स्थानीय लोगों के विकास की रफ्तार तेज हो सकती है।’’

दूसरी ओर ऐसी कंपनियों की भी कमी नहीं है जिन्होंने पर्यावरण की अनदेखी करते हुए आसपास के लोगों को उपहारस्वरूप कई तरह की बीमारियां दीं, उन्हें उनके मूल निवास से उजाड़ा और उनके पुनर्वास के लिए कुछ भी नहीं किया, या जो किया सिर्फ दिखावे के लिए किया। अत: औद्योगीकरण के लाभ पर लट्टू हुए बिना इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि उद्योग से पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे, औद्योगीकरण के कारण विस्थापित लोगों के पुनर्वास और रोजग़ार का काम भी साथ-साथ चले, और विकास की राह में अनावश्यक रोड़े भी न अटकें। तभी गरीबी दूर होगी, अभावों से छुटकारा मिलेगा और शेष समस्याओं के हल की राह निकलेगी।   


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"Alternative Journalism and PK Khurana"

आतंकवाद का अर्थशास्त्र
                                                                                                                             l  पी. के. खुराना
भारतवर्ष के पूर्वोत्तर राज्यों में असम सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य है। असम अपने चाय बागानों, कामाख्या मंदिर के साथ-साथ शेष विश्व में आतंकवाद के लिए भी जाना जाता है। हाल ही में असम में चुनाव संपन्न हुए। चार अप्रैल और ग्यारह अप्रैल को दो चरणों में मतदान हुआ। मतदान का प्रतिशत बहुत अच्छा था, मतदान शांतिपूर्ण रहा और देश भर का मीडिया बता रहा है कि यह लोकतंत्र की जीत है। तेरह मई को चुनाव परिणाम आ जाएंगे और फिर कोई न कोई सरकार, संभवत: कांग्रेस की ही सरकार, असम का प्रशासन संभाल लेगी।

चुनाव की अवधि में मैं लगभग 25 दिन के असम प्रवास पर था और यहां कई वरिष्ठ पत्रकारों से मिलने का अवसर मिला। असम आने से पहले मैं आतंकवाद के अर्थशास्त्र को नहीं जानता था, पर यहां से प्रकाशित प्रसिद्ध हिंदी समाचारपत्र दैनिक सेंटिनल के संपादक श्री दिनकर कुमार जी से मुलाकात ने मेरी आंखें खोलीं और मेरे सामने आतंकवाद का एक नया पहलू सामने आया, जो मेरी कल्पनाशक्ति से बाहर था।

यह सही है कि हमारे कई पड़ोसी देश आतंकवाद को जिंदा रखने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन पूरा सच यह है कि भारतीय राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी आतंकवाद की रोकथाम नहीं चाहते हैं, आतंकवाद जारी रहने में उनका बहुत बड़ा स्वार्थ निहित है, और वह स्वार्थ है अरबों-खरबों की धनराशि जो यह सब लोग आपस में मिल बांट कर खाते हैं।

आतंक आज भी असम की एक सच्चाई है और आतंकवादियों की ओर से असम बंद का फरमान जारी हो तो पूरा बाजार बंद रहता है। उसमें कोई एक्सेप्शन नहीं है। दूकानदार कांग्रेसी हो, भाजपाई हो या किसी और दल का समर्थक हो, दूकान बंद रखता है। यहां तक कि मंत्रियों और विधायकों के व्यापारिक संस्थान भी बंद रहते हैं।

असम में बहुत गरीबी है, दबे-कुचले लोग आतंकवादी बनकर शक्तिशाली महसूस करते हैं, पर साथ में इसमें धन का भी रोल है। आतंकवादी यदि सरेंडर करे तो उसके पुनर्वास के लिए बैंक से कर्जा, ग्रांट आदि की सरकारी सहायता मिलती है, जो अन्यथा नहीं मिलती। बहुत से लोग इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आतंकवादी बनते हैं। आतंकवादी रहते हुए आतंकवादियों को विदेशों से जो पैसा मिलता है, उन्हें उसका हिसाब-किताब देने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जो लोग आतंकवाद का साथ देते हैं वे दोनों तरह से धनलाभ से आकर्षित होते हैं।

ब्रह्मपुत्र यहां की सबसे बड़ी नदी है। असम में ब्रह्मपुत्र की महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि इसे नदी नहीं नद (यानी, बड़ी नदी) माना जाता है और पुल्लिंग (यानी, पुरुष वाचक) संबोधन दिया जाता है। ब्रह्मपुत्र के आसपास का बहुत का क्षेत्र हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाता है और बाढ़ खत्म होने पर खाली हुई जमीन स्थाई निवास के काम नहीं आती, लेकिन बांग्लादेश से आये लोगों को आतंकवाद से जुड़े लोग ब्रह्मपुत्र के आसपास बसा देते हैं और उनसे अफीम की खेती करवाते हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अफीम की बहुत कीमत है जो आतंकवादियों के लिए आय और हथियार पाने का बहुत बड़ा ज़रिया है। असम में बंाग्लादेश से आने वाले लोगों को इसलिए नहीं रोका जाता क्योंकि वे कांग्रेस के लिए बड़ा वोट बैंक हैं। आतंकवादी और सरकार एक दूसरे के सहयोगी नहीं हैं, पर दोनों एक दूसरे को पूरी तरह से खत्म भी नहीं करना चाहते क्योंकि एक के अस्तित्व में ही दूसरे की कमाई है। इस प्रकार बांग्लादेशी घुसपैठिये, सरकार और आतंकवादियों के इस अव्यक्त गठजोड़ के कारण भारत में आ बसते हैं और यहीं बसे रह जाते हैं।

आतंकवाद से जुड़ा एक और पहलू भी है। आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि असम में राजनीति से जुड़े लोगों में से बहुत से ऐसे हैं जिनकी संपत्ति में पिछले पांच वर्षों में ही 2000 गुणा वृद्धि हुई है। भ्रष्टाचार के अलावा दुनिया का कोई ऐसा व्यवसाय नहीं है जो पांच वर्षों में आपकी संपत्ति में 2000 गुणा बढ़ा सके। एक और बड़ा और महत्वपूर्ण सच यह है कि आतंकवाद की समाप्ति के लिए सहायता के तौर पर राज्य को केंद्र से खरबों रुपये मिलते हैं। मगर यह सहायता राजनीतिज्ञों और अधिकारियों तक सीमित रह जाती है। हाल ही में एक भयावह मामला सामने आया कि केंद्र से सहायता के रूप में मिली धनराशि पात्र लोगों में बांटने के बजाए मंत्रियों व अधिकारियों ने दबा ली। एक स्वयंसेवी संगठन ने जब इसका पर्दाफाश किया तो पता चला कि एक मंत्री ने वह पैसा छुपाने के लिए अपने घर में दोहरी पर्तों वाली दीवारें बनवा कर उनमें छुपा रखा था। दर्जनों अधिकारी बर्खास्त हुए और एक ने तो आत्महत्या तक कर ली। लेकिन उसके बाद आगे कुछ नहीं हुआ। आतंकवाद के जारी रहने का यह सबसे बड़ा कारण है। आतंकवाद के अर्थशास्त्र का यह सबसे घिनौना पहलू है।

अन्ना हज़ारे के आंदोलन से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम शुरू हुई है। सारे शोर-शराबे के बावजूद अभी यह मुहिम शैशवावस्था में है और अभी एक लंबी लड़ाई बाकी है। उससे भी ज्य़ादा जरूरी है भ्रष्टाचार के विभिन्न स्वरूपों को पहचानना और फिर उसके निदान के लिए आवश्यक और प्रभावी उपाय करना। भ्रष्टाचार के कारण कुछ लोग आवश्यकता से अधिक अमीर हो रहे हैं जबकि एक बहुत बड़ी जनसंख्या दो जून की रोज़ी-रोटी की मोहताजी से उबर पाने के लिए छटपटा रही है। गरीब और दबे-कुचले लोग आतंकवाद की शरण में जाने को विवश हो रहे हैं। इस तथ्य से अनजान आम आदमी एक तरफ सरकारी भ्रष्टाचार की मार सह रहा है तो दूसरी ओर आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो रहा है। आतंकवाद से परेशानी सिर्फ आम जनता को है, और आतंकवाद के जारी रहने का एक बड़ा कारण हमारे जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार है। इस सच्चाई को समझे बिना आतंकवाद से नहीं निपटा जा सकता।

यदि हम आतंकवाद से निपटना चाहते हैं तो हमें भ्रष्टाचार से भी साथ ही निपटना होगा। अन्ना हजारे के माध्यम से इस लड़ाई की शुरुआत तो हो चुकी है, पर लड़ाई को जारी रखना होगा। हमें याद रखना चाहिए कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से भ्रष्टाचार रूपी रावण को मारा जा सकता है। जनता के हर वर्ग को इसे समझने, दूसरों को समझाने और सबको साथ लेकर इस प्रयास को मजबूती देने का काम करना होगा तभी हम भ्रष्टाचार से लड़ पायेंगे और एक स्वस्थ, समृद्ध और विकसित समाज का निर्माण कर पायेंगे अन्यथा यह दीपक भी बुझ जाएगा और हम अंधेरे को कोसते ही रह जाएंगे।यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है।            v

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"Alternative Journalism" and "PK Khurana"

Nahin Chahiye Robinhood !

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


नहीं चाहिए राबिनहुड !
                                                                                                              पी. के. खुराना
पश्चिमी देशों की कथा-कहानियों का एक प्रसिद्ध पात्र राबिनहुड है जो समृद्ध लोगों की संपदा लूटकर गरीबों में बांट देता था। दो दशक पहले तक भारतवर्ष में भी ऐसी फिल्मों का बोलबाला रहा है। भारतीय फिल्मों में भी हीरो अगर डाकू होता था तो वह गरीबों का हमदर्द और अमीरों के लिए यमराज होता था। आम जनता में ऐसी फिल्में खूब लोकप्रिय होती थीं क्योंकि अभावों से ग्रस्त आमजन को ऐसे डाकू में भी अपना मसीहा नज़र आता था।

हाल ही में मैं एक टीवी चैनल द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में निमंत्रित था, जहां इंग्लैंड में बसे एक भारतीय विद्वान ने बाबा अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए अपने भाषण में कहा कि रिश्वत देना हमारे धर्म का एक हिस्सा रहा है। उन्होंने कहा कि हम हमेशा भगवान से कुछ न कुछ मांगते रहते हैं और बदले में उन्हें कुछ चढ़ावा चढ़ाते हैं। 'हे भगवान, मेरे बेटे की नौकरी लग जाए तो चांदी का मुकुट चढ़ाउंगाजैसी मन्नतें भारतवर्ष में आम हैं।

उपरोक्त दो उदाहरणों का आशय यह है कि हम कहीं न कहीं खुद पर और अपनी काबलियत पर अविश्वास करते हैं और अपनी उन्नति के लिए भगवान या किसी राबिनहुड का सहारा चाहते हैं। धार्मिक होना, आध्यात्मिक होना, भगवान पर विश्वास करना एक अलग बात है पर अपनी सफलता को राम-भरोसे छोड़ देना एक बिलकुल अलग बात है। इसी तरह से किसी अमीर व्यक्ति की मेहनत से बनी संपत्ति को लूटकर गरीबों में बांटने वाला न केवल खुद एक लुटेरा है बल्कि वह गरीबों को मेहनत का नहीं, आलस्य और बेईमानी का पाठ पढ़ाता है। गरीबों का असली हमदर्द वह नहीं है जो अमीरों की संपत्ति लूटकर गरीबों में बांटे, बल्कि वह होना चाहिए जो उन्हें गरीबी के दुष्चक्र से निकाल कर अमीर बनने का रास्ता दिखाये।

गरीबी के विरुद्ध अभियान के प्रयास में हमारे एनजीओ  'बुलंदीने एक सर्वेक्षण किया जिसके परिणाम हमें एक नई दिशा देने में समर्थ हैं। अध्ययन में पाया गया कि गरीबी से बचने के लिए सिर्फ शिक्षित होना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके लिए विशिष्ट किस्म की आर्थिक शिक्षा की आवश्यकता है। यह आर्थिक शिक्षा एकाउंटेंसी या शेयरों और म्यूचुअल फंडों में निवश की शिक्षा नहीं है। यह आर्थिक शिक्षा एक विशेष किस्म की मानसिक शिक्षा है या मानसिक यात्रा है जो किसी व्यक्ति को गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकाल सकती है। गरीबी से पार पाने के कुछ निश्चित नियम हैं और इन नियमों का पालन करके कोई भी व्यक्ति गरीबी से छुटकारा पा सकता है। इन नियमों का पालन किसी साधना की तरह कठिन भी है और लंबे समय तक चलने वाला भी, पर गरीबी से पार पाने का यह एक जांचा-परखा उपाय है। एनजीओ 'बुलंदीके कार्यकर्ताओं ने ऐसे 100 से भी अधिक व्यक्तियों से कई किश्तों में लंबी बातचीत की, उनके रहन-सहन, दिनचर्या, कार्य-व्यवहार व रणनीतियों का गहन अध्ययन किया। गरीबी से लड़कर अमीर बनने में सफल हुए इन लोगों में कुछ सामान्य गुण पाये गए। 'बुलंदीने इन्हीं सामान्य गुणों पर आधारित नियमों को सूचीबद्ध किया है जो किसी भी व्यक्ति को गरीबी से छुटकारा दिलाने में समर्थ हैं।

'बुलंदीके अध्ययन में यह पाया गया कि इन सभी व्यक्तियों में कम से कम 6 विशेषताएं सामान्य थीं। इनमें पहली विशेषता है, गरीबी के बावजूद छोटी-छोटी बचत करके रुपये जुटाना। बुलंदी के अध्ययन में शामिल लोग शुरू से अमीर नहीं थे। वे भी गरीबी और अभावों से परेशान थे, पर उन्होंने नियम से अपनी आय के कुछ पैसे बचाने आरंभ किये और उनकी बचत अंतत: एक छोटे से निवेश में बदल गयी। यानी, पहली शुरुआत छोटी बचत से हुई।

दूसरी विशेषता यह थी कि इनमें से किसी ने भी उस बचत को किसी बैंक के बचत खाते में निट्ठली रखने के बजाए उस धनराशि का व्यापार अथवा संपत्ति में निवेश किया और अपने लिए अतिरिक्त कमाई का ज़रिया बनाया। अध्ययन में शामिल एक व्यक्ति ने अपना रिक्शा खरीदा और नौकरी के बाद सवारियां ढोता रहा, किसी ने मूंगफली की रेहड़ी लगाई तो किसी ने पकौड़ों की रेहड़ी लगाई, किसी ने अपनी बचत से छोटी सी लायब्रेरी बनाई और लोगों को पुस्तकें और पत्रिकाएं किराए पर देनी शुरू कर दीं, किसी ने मधुमक्खियां पालीं, किसी ने मुर्गियां पालीं और किसी ने रेहड़ी-फड़ी के दुकानदारों को माल सप्लाई करने का काम शुरू किया। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि ऐसे सभी लोगों ने किसी एक जगह नौकरी की और अपने खाली समय में कोई काम-धंधा किया। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि गरीबी से अमीरी की यात्रा में सफल हुए लोगों में ऐसे लोग भी हैं जो एक नौकरी के बाद कोई पार्ट-टाइम नौकरी भी करते थे, पर इनमें से ज्यादातर लोगों को नौकरी के साथ व्यवसाय करने वाले लोगों की अपेक्षा अमीरी का सुख कुछ देर से मिला।

इन लोगों में तीसरा गुण यह पाया गया कि वे बढ़ी हुई आय पर ही संतुष्ट नहीं हुए, बल्कि उन्होंने इसके साथ ही शेष समय में अतिरिक्त पढ़ाई की या कोई नया हुनर सीखा और या तो नौकरी में प्रमोशन पाई या अपने नये ज्ञान के बल पर अपने व्यवसाय में विस्तार किया। इससे उनकी आय अपने अन्य साथियों की अपेक्षा ज्यादा तेज़ी से बढ़ी।
चौथा सामान्य गुण यह था कि वे किसी भी समस्या अथवा चुनौती से घबराने के बजाए उसके समाधान के एक से अधिक हल खोजने का प्रयास करते थे और सबसे बेहतर विकल्प को आजमाते थे।

गरीबी से अमीरी की यात्रा में सफल रहे इन लोगों में से कुछ लोग तेजी से अमीर बने, जबकि बहुत से दूसरे लोग अपेक्षाकृत धीमी गति से अमीर बने। इनमें से जो लोग ज्य़ादा जल्दी अमीर बने, उनमें एक और खास गुण, यानी पांचवां गुण, यह पाया गया कि वे लोगों को अपने साथ जोडऩे और जोड़े रखने में कुशल थे। वे अपने साथियों के लाभ का ध्यान रखते हुए उनकी निष्ठा जीतते थे और उनसे बेहतर काम लेते थे। इस गुण ने उन्हें नौकरी में प्रमोशन दिलवाई और व्यवसाय में तरक्की। विभिन्न अध्ययनों से यह भी साबित होता है कि जैसे-जैसे आप सफलता की सीढिय़ा चढ़ते चलते हैं, वैसे-वैसे तकनीकी योग्यताओं का महत्व कम और कल्पनाशक्ति के प्रयोग से समस्याओं का समाधान ढूंढऩे और लोगों को साथ लेकर चलने की क्षमता का महत्व बढ़ता चला जाता है।

एनजीओ 'बुलंदीके इस अध्ययन से यह भी सामने आया कि इन सफल व्यक्तियों का छठा सामान्य गुण यह था कि उन्होंने अपने लिए किसी ऐसी आय का जुगाड़ भी किया जहां उनकी व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक नहीं थी। किसी ने रिक्शा खुद चलाने के बजाए उसे किसी अन्य को किराए पर दे दिया, किसी ने अतिरिक्त खोली, घर या दूकान खरीदी और किराए पर चढ़ाया, किसी ने अपने व्यवसाय की एक से अधिक शाखाएं खोलीं और उन शाखाओं का काम किसी जिम्मेदार मैनेजर अथवा भागीदार को सौंपा, किसी ने काम का ठेका उठाकर उसे अन्य लोगों को सौंपा, यानी काम खुद नहीं किया बल्कि काम लेकर उसे दूसरों से करवाया ताकि उनके पास अपने अन्य कामों के लिए समय बचा रहे।

अब यह चुनाव हमें करना है कि हम दूसरों की दया पर निर्भर रहना चाहते हैं या खुद समर्थ होकर अपने साथियों की प्रगति में सहायक होना चाहते हैं। हम राबिनहुड बनकर गरीबों में खैरात बांटना चाहते हैं या गरीबों को समृद्ध बनाकर उनका आत्मसम्मान बढ़ाना चाहते हैं। v

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Pioneering Alternative Journalism in India

यथा प्रजा, तथा राजा !
l पी. के. खुराना

एक ज़माना था जब कहा जाता था -- यथा राजा, तथा प्रजा!’, यानी यह माना जाता था कि राजा जैसा होगा, प्रजा वैसी ही हो जाएगी। समय बदला, निज़ाम बदला, शासन के तरीके बदले, यहां तक कि शासकों की नियुक्ति के तरीके बदले और लोकतंत्र के ज़माने में प्रजा ही अपने भाग्य विधाता जन-प्रतिनिधियों की भाग्य विधाता बन बैठी। आज के ज़माने में व्यावहारिक स्थिति ऐसी है कि इस पर यथा प्रजा, तथा राजा!की उक्ति ही सटीक लगती है। मतलब यह है कि प्रजा जैसी होगी, देश की बागडोर थामने वाले शासकों को भी वैसा ही होना पड़ेगा।

मेरा ध्यान इस ओर तब गया जब याहू ग्रुप्स पर पीआर प्वायंट के मॉडरेटर श्री श्रीनिवासन ने इस समूह के सदस्यों को एक ईमेल भेज कर राज्यसभा के सदस्यों द्वारा संसद में उपस्थिति और कामकाज के विश्लेषण से अवगत करवाया। उन्होंने ये आंकड़े सांसदों के व्यवहार, कामकाज आदि का विश्लेषण देने वाली उत्कृष्ट वेबसाइट पीआरएसइंडिया से लिये थे। यह विश्लेषण वस्तुत: आंखें खोल देने वाला है।

चुनाव के समय राजनीतिक दल, कार्यकर्ता और मीडिया बहुत शोर मचाते हैं लेकिन चुनाव के बाद हम अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के कामकाज की समीक्षा करना भूल जाते हैं। हर कंपनी अपने छोटे से छोटे कर्मचारी के कामकाज की समीक्षा करती है लेकिन यह दुखद स्थिति है कि हम अपने प्रतिनिधियों के व्यवहार और कामकाज के प्रति उदासीन रहते हैं। सदन में प्रतिनिधियों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी, निजी बिल आदि बहुत से तरीकों से उनके कामकाज की समीक्षा संभव है लेकिन मीडिया भी इस ओर से उदासीन ही रहा है। परिणाम यह है कि हमारे प्रतिनिधि जनता की उदासीनता का लाभ उठाते हैं और राजनीतिक दल ऐसे लोगों को भी टिकट दने से गुरेज़ नहीं करते जिनका प्रदर्शन संतोषजनक न रहा हो। यहां तक कि विधानसभाओं और लोकसभा में ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष चुना जाता रहा है जिन्हें बहुत सक्रिय अथवा कुशल नहीं माना जाता था।

हमारी संसद लोकसभा और राज्यसभा से मिलकर बनी है। लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है और देश के मतदाता सीधे मतदान से इन प्रतिनिधियों को चुनते हैं। दूसरी ओर, राज्यसभा का कार्यकाल छ: वर्ष का होता है और हर दो वर्ष बाद इसके एक-तिहाई सदस्य रिटायर हो जाते हैं। विभिन्न विधानसभाओं के सदस्य इन्हें चुनते हैं, और कुछ सदस्य राष्ट्रपति द्वारा भी मनोनीत किये जाते हैं। भारत के उपराष्ट्रपति इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं जबकि राज्यसभा के उपाध्यक्ष का चुनाव सदन के सदस्यों में से होता है।

13 दिसंबर, 2010 को राज्यसभा के शीतकालीन अधिवेशन के समापन के समय राज्यसभा के कुल 242 सदस्य थे जिनमें विभिन्न विधान सभाओं द्वारा चुने गये 231 सदस्य तथा राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गये 11 सदस्य शामिल हैं। इनमें से कुछ सदस्य सन् 2005 से सदन के सदस्य हैं और उनका कार्यकाल इसी वर्ष समाप्त हो जाएगा। राज्यसभा के के सदस्य होने के बावजूद उपाध्यक्ष सवाल नहीं पूछते। इसी प्रकार सरकार के प्रतिनिधि होने के नाते मंत्रिगण भी सवाल नहीं पूछते। उपाध्यक्ष, मंत्रिगण और राज्यसभा में विपक्ष के नेता को हाजिरी रजिस्टर पर उपस्थिति दर्ज करने की आवश्यकता नहीं होती। अत: वर्तमान में केवल 228 सदस्यों को ही हाजिरी दर्ज करने और सवाल पूछने की इज़ाजत है।

यदि राज्यसभा के सदस्यों की कारगुज़ारी की समीक्षा की जाए तो आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के श्री टी. सुब्बारामी रेड्डी पहले स्थान पर हैं जिन्होंने 500 बार विभिन्न मुद्दों पर बहस में भाग लिया या सवाल पूछे और निजी बिल पेश किये। सदन में उनकी उपस्थिति 72 प्रतिशत रही है। वे जून, 2008 से राज्यसभा के सदस्य हैं। अप्रैल, 2008 से राज्यसभा के सदस्य, बिहार से जनता दल (युनाइटिड) के श्री एन. के. सिंह दूसरे स्थान पर रहे। उन्होंने कुल 495 बार सवाल पूछे या बहस में भाग लिया। सदन में उनकी उपस्थिति का प्रतिशत 82 रहा है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से पश्चिम बंगाल से राज्यसभा के सदस्य श्री आर. सी. सिंह जून, 2008 में चुने गए थे। राज्यसभा में उनकी उपस्थिति 92 प्रतिशत रही है और वे 462 बार सवाल पूछ कर या विभिन्न बहसों में भाग लेकर तीसरे स्थान पर रहे हैं। मध्य प्रदेश से भाजपा के श्री प्रभात झा ने भी 462 बार सवाल पूछे या राज्यसभा के वाद-विवाद में हिस्सा लिया। कारगुज़ारी के मामले में चौथे स्थान पर आंके गये श्री झा अप्रैल, 2008 से राज्यसभा के सदस्य हैं और उनकी उपस्थिति 64 प्रतिशत रही है। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत स्वतंत्र सदस्य हिन्दुस्तान टाइम्स की श्रीमती शोभना भरतिया की उपस्थिति का प्रतिशत 83 है। वे फरवरी, 2006 से सदन की सदस्या हैं तथा इस दौरान 424 बार सवाल पूछ कर वे राज्यसभा की पांचवीं सबसे सक्रिय सदस्य आंकी गई हैं।

जून, 2006 से राज्यसभा के सदस्य कांग्रेस के हाई-प्रोफाइल महासचिव, मीडिया विभाग के प्रमुख तथा मुख्य प्रवक्ता श्री जनार्दन द्विवेदी शायद सदन में मंत्रियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं और उन्होंने शत-प्रतिशत उपस्थिति के बावजूद आज तक एक बार भी एक भी सवाल नहीं पूछा और न ही कोई निजी बिल पेश किया। अब तक वे सिर्फ एक बार एक बहस में हिस्सा लेने के लिए खड़े हुए हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव और कांग्रेस थिंक-टैंक के प्रमुख सदस्य श्री अहमद पटेल गुजरात से राज्यसभा के सदस्य हैं और उन्होंने भी आज तक राज्य सभा में कोई सवाल नहीं पूछा जबकि वे अगस्त 2005 से राज्यसभा के सदस्य हैं और उनकी सदस्यता इसी वर्ष समाप्त हो जाएगी। इन दोनों नेताओं को कांग्रेस के हाई-प्रोफाइल नेता होने के कारण संदेह लाभ मिल सकता है परंतु गुजरात से भाजपा के सदस्य श्री सुरेंद्र मोतीलाल पटेल और पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस के श्री स्वप्न साधन बोस के बारे में क्या कहें, जो अगस्त 2005 से राज्यसभा में होने के बावजूद प्रश्नों के मामले में आज तक अपना खाता ही नहीं खोल पाये। यदि ये कुछ और माह इसी प्रकार चुप्पी साधे रहे तो वे कुछ भी न पूछने का रिकार्ड बनाने वाले सदस्य बन जाएंगे। श्री बोस की उपस्थिति भी निराशाजनक रूप से सिर्फ 19 प्रतिशत ही रही है। इनसे भी आगे आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के डा. दासारी नारायण राव हैं जो सन् 2006 से राज्यसभा में हैं लेकिन उनकी उपस्थिति सिर्फ 4 प्रतिशत रही है और जब कभी वे सदन में आये भी, तो उन्होंने कोई सवाल नहीं पूछा। शायद ये भी चुप्पी और अनुपस्थिति का एक और इतिहास बनाने की फिराक में हैं।

आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के श्री टी. सुब्बारामी रेड्डी जहां सर्वाधिक सक्रिय सदस्य आंके गए हैं वहीं आंध्र प्रदेश से ही कांग्रेस के ही एक अन्य सदस्य डा. दासारी नारायण राव फिस्सडियों के शिरोमणि बने हैं। उनका यह व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना तो है ही, शोचनीय भी है।

इस विश्लेषण से हमें एक ही सीख मिलती है कि हम अपने प्रतिनिधियों की कारगुज़ारी पर लगातार नज़र रखें और अगली बार उन्हें वोट देने से पहले उनकी कारगुज़ारी को भी ध्यान में रखें। पार्टी, क्षेत्र और जाति को ध्यान में न रखकर यदि हम अपने प्रतिनिधियों की कुशलता और प्रदर्शन की ओर ध्यान देंगे तभी देश में सुराज आयेगा। याद रखिए -- यथा प्रजा, तथा राजा!हम यदि नहीं बदलेंगे तो हम इन्हें भी नहीं बदल पायेंगे। एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शहरी मतदाता, खासकर पढ़े-लिखे लोग मतदान इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि सरकारें बदलने से उनका कुछ भी बदलने वाला नहीं है। हमें अपनी इस सोच को भी बदलना होगा। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश राजनीतिज्ञों को काबू कर सकते हैं। यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है। ***