Sunday, April 1, 2012

Information, News & Technique : सूचना, समाचार और तकनीक



सूचना, समाचार और तकनीक
n        पी. के. खुराना


इसमें कोई शक नहीं है कि सूचना और समाचार हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और आज भी टीवी तथा समाचारपत्र, सूचना एवं समाचार देने के प्राथमिक स्रोत हैं। आज भी समाचारपत्र और टीवी, अपने तथा समाचार एजेंसियों के नेटवर्क के ज़रिये समाचार इकट्ठे करते हैं। लोग समाचार जानना चाहते हैं, समाचारपत्र और टीवी समाचार को रूपऔर आकारदेते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि सूचना एवं समाचार के प्राथमिक स्रोत होने के बावजूद वे अपने इस उत्पादसे वह लाभ नहीं ले पा रहे हैं जो शायद उन्हें मिलना चाहिए था।

इंटरनेट और स्मार्ट फोन के संगम ने समाचार जानने के तरीकों में भारी परिवर्तन कर दिया है। समाचारपत्रों के इंटरनेट संस्करण अब मोबाइल फोन हैंडसेट तथा टेबलेट पर भी उपलब्ध हैं और अब विश्व की जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपने मोबाइल फोन अथवा टेबलेट के माध्यम से समाचार पढ़ता है। सफर में चल रहे लोग तथा व्यस्त एग्जीक्यूटिव समाचारपत्र का छपा हुआ संस्करण देखने के बजाए उसका ऑनलाइन संस्करण देखने के आदी होते जा रहे हैं। इसका सीधा सा परिणाम यह है कि सूचना और समाचार जानने की बढ़ती मांग का लाभ समाचारपत्र इंडस्ट्री को होने के बजाए इंटरनेट और तकनीक कंपनियों को हो रहा है।

प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रोजेक्ट फार एक्सीलेंस इन जर्नलिज़्म के तहत सन् 2012 की स्टेट आफ दि न्यूज़ मीडियाहाल ही में जारी की गई है। अमरीका में मीडिया इंडस्ट्री की वार्षिक रिपोर्ट का यह नौवां संस्करण है, जो हर वर्ष अमरीकी पत्रकारिता और मीडिया इंडस्ट्री के रुझानों की छानबीन करता है। इस वर्ष के अध्ययन में मोबाइल टेक्नालॉजी और सोशल मीडिया के समाचारों पर प्रभाव को विशेष रूप से शामिल किया गया है।

इस अध्ययन से पता चलता है कि स्मार्टफोन और टेबलेट का प्रयोग करने वाले लोग दिन में कई बार अपने फोन या टेबलेट पर समाचार देखते हैं। यही नहीं, कंप्यूटर अथवा लैपटाप का प्रयोग करने वाले लोगों में से 34 प्रतिशत लोग अपने स्मार्टफोन पर भी समाचार देखते हैं और स्मार्टफोन का प्रयोग करने वाले लोगों में से 27 प्रतिशत लोग अपने टेबलेट पर भी समाचार देखते हैं। अमरीका में समाचार जानने की इच्छा रखने वाला ऑनलाइन वर्ग बढ़ता जा रहा है और समाचारपत्रों की प्रसार संख्या तथा विज्ञापन से होने वाली आय घटती जा रही है। सन् 2000 से अब तक इसमें 43 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है, और अब अमरीका में अधिकतर लोग यह विश्वास करते हैं कि अगले 5 वर्षों में समाचारपत्रों का घरों में वितरण बाधित हो सकता है।

समाचारों के ऑनलाइन पाठक वर्ग में इस वर्ष 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई और विज्ञापनों से होने वाली आय में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई। विज्ञापन पर किये जाने वाले कुल खर्च का 40 प्रतिशत अकेले गूगल के हिस्से में जाता है और ऑनलाइन विज्ञापन बाज़ार का 68 प्रतिशत गूगल, याहू, फेसबुक, माइक्रोसाफ्ट और एओएल में ही बंट जाता है। दूसरी ओर, समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की आय घटी है और समाचारपत्रों को विज्ञापनों से होने वाली आय घटकर 1984 के स्तर पर आ गई है, वह भी तब जब इसमें महंगाई के प्रभाव को शामिल नहीं किया गया है। सन् 2011 के आखिरी तीन महीनों यानी अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर में ऐप्पल के हालीडे सीज़न की आय 46 अरब डालर थी जब इसी साल पूरे वर्ष के दौरान दैनिक समाचारपत्रों की विज्ञापन और प्रसार से होने वाली कुल आय 34 अरब डालर थी।

यह तो स्पष्ट है कि अमरीका में समाचारपत्रों का भविष्य स्पष्ट नहीं है और कोई एक ही कार्य-योजना सभी समाचारपत्रों की मुश्किलें दूर करने के लिए काफी नहीं है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि अब मीडिया इंडस्ट्री को अपने कार्यक्षेत्र को दोबारा से परिभाषित करने की आवश्यकता है। समाचारपत्र कभी मात्र जनहित के लिए समाचार देते थे, अब उसी रूप में वह स्थिति तो नहीं रही, पर अब भी समाचारपत्र उद्योग की महत्ता समाप्त नहीं हुई है। भूखे भजन न होई गोपालाके नियमानुसार मीडिया उद्योग को जिंदा रहने के लिए आय के स्रोतों तथा कुल आय में वृद्धि की आवश्यकता है।

प्रसिद्ध अमरीकी मीडिया विश्लेषक श्री रयान फ्रैंक का मानना है कि मीडिया उद्योग के पराभव का कारण यह है कि वह पूरी तस्वीर को न देखकर, मार्केटिंग दृष्टिदोष (मार्केटिंग मायोपिया) से ग्रस्त है और मीडिया उद्योग ग्राहक-केंद्रित (कस्टमर ओरिएंटेड) होने के बजाए उत्पाद-केंद्रित (प्राडक्ट ओरिएंटेड) हो गया है। श्री फ्रैंक का मत है कि मीडिया उद्योग को अब राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय होने के बजाए क्षेत्रीयऔर स्थानीयदृष्टिकोण अपनाना चाहिए तथा स्थानीय सूचना, जानकारी एवं समाचारों का विश्वसनीय स्रोत बनना चाहिए। उनका मानना है कि मीडिया उद्योग को इनीशिएटिव, इन्नोवेशन और इन्वेस्टके मंत्र पर चलकर ही अपनी मौजूदा कठिनाइयों से राहत मिल सकती है। समाचारपत्रों को स्थानीय समुदाय के लिए मोबाइल एप्लीकेशन्स (मोबाइल ऐप्स) का विकास करना चाहिए ताकि वे स्थानीय लोगों के लिए प्रासंगिक बने रहें। यही नहीं, वे समाचारों व सूचनाओं को आकार देने में इंटरनेट के पिछलग्गू की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व की स्थिति में आयें तथा समाचारों एवं शेष सामग्री के माध्यम से जनमत निर्माण में स्वतंत्र भूमिका निभाएं।

इसी तरह विज्ञापनदाताओं के लिए प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें पाठकों के बारे में अधिकाधिक जानकारी होनी चाहिए, यानी, उनके पास सही-सही रीडर प्रोफाइलहोना लाभदायक होगा। यह इस हद तक होना चाहिए कि उन्हें पता हो कि उनकी कौन सी पाठिका कब गर्भवती होकर तद्नुसार खरीदारी कर रही है।

मीडिया उद्योग को शोध एवं विकास (रिसर्च एंड डेवलेपमेंट) में निवेश पर ज़ोर देते हुए श्री फ्रैंक कहते हैं कि गूगल अपनी प्रयोगशाला में शोध एवं विकास पर बहुत ध्यान देता है तथा भविष्य के रुझान को समझने के लिए ही नहीं, बल्कि बदलने के लिए भी वह लगातार निवेश करता है। डिजिटल क्षेत्र में गूगल के अग्रणी रहने का यही रहस्य है और मीडिया इंडस्ट्री को इससे सीख लेनी चाहिए।

श्री रयान फ्रैंक मानते हैं कि मीडिया उद्योग को सभी संभावनाओं पर विचार करते हुए अपनी रणनीति तय करनी चाहिए ताकि उसका क्षय रुके और विकास संभव हो सके। देखना यह है कि स्टेट आफ दि न्यूज़ मीडियाअध्ययन से भारतीय मीडिया उद्योग क्या सीख लेता है ? ***

Information, News & Technique
By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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Sunday, March 25, 2012

Significance of the Checklist ! :: चेकलिस्ट का महत्व !

Significance of the Checklist ! :: चेकलिस्ट का महत्व !
n        पी. के. खुराना


मेरे मित्र डा. एस.पी.एस.ग्रेवाल, ‘ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूटके नाम से आंखों का एक अस्पताल चलाते हैं जिसकी शाखाएं, चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में हैं। ज्वायंट कमीशन इंटरनैशनल नाम की स्वतंत्र अमरीकी संस्था अमरीका से बाहर के विभिन्न अस्पतालों को गुणवत्ता संबंधी प्रमाणपत्र (क्वालिटी सर्टिफिकेट) देती है। ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट की खासियत यह है कि यह विश्व का चौथा ऐसा आंखों का अस्पताल था जिसे जेसीआई का गुणवत्ता प्रमाणपत्र मिला था, जो विश्व भर में अस्पतालों के लिए सबसे बड़ा गुणवत्ता प्रमाणपत्र माना जाता है। उसी दौरान जब मैं एक बार ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट के टायलेट में गया तो वहां मैंने एक चेकलिस्ट टंगी देखी जिस पर टायलेट की दुरुस्ती से संबंधित प्वायंट्स लिखे हुए थे और उन्हें टिक किया गया था। ये प्वायंट थे, फ्लश ठीक चल रही है, पेपर रोल लगा है, पेपर नेपकिन हैं, सीट को कीटाणुरहित किया गया है, इत्यादि-इत्यादि।

इससे भी पहले सन् 2003 में जब मेरे ज्येष्ठ सुपुत्र सुमित खुराना ने प्रतिष्ठित थापर विश्वविद्यालय से इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग करने के बाद हमारे पारिवारिक व्यवसाय में कदम रखा तो उसने हमारी कंपनी के हर कर्मचारी के कामकाज की विस्तृत चेकलिस्ट बनाई थी जिसमें ऐसे चरणों का जिक्र था जो दो दशक के अनुभव के बावजूद खुद मुझे भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थे, लेकिन चेकलिस्ट के कारण एकदम से स्पष्ट हो गए। तब से लगातार हम अपने हर काम से पहले चेकलिस्ट अवश्य बनाते हैं। चेकलिस्ट की सहायता हम तब भी लेते हैं जब वह काम हम दस हजारवीं बार कर रहे हों। इससे किसी गलती अथवा काम की पूर्णता में कमी की आशंका कम से कम हो जाती है।

हाल ही में भारतीय मूल के अमरीकी सर्जन डा. अतुल गवांडे की पुस्तक द चेकलिस्ट मेनिफेस्टोप्रकाशित हुई है जिसमें चेकलिस्ट की महत्ता को विस्तार से रेखांकित किया गया है। किसी भी काम में गलतियों से बचने के लिए चेकलिस्ट एक बहुत साधारण दिखने वाला असाधारण कदम है। वस्तुत: यह इतना साधारण नज़र आता है कि हम अक्सर इसकी महत्ता की उपेक्षा कर देते हैं।

द चेकलिस्ट मेनिफेस्टोडा. अतुल गवांडे की तीसरी पुस्तक है। इससे पहले उन्होंने कंप्लीकेशन्सऔर बैटरनामक दो पुस्तकें लिखी हैं, जिनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। द चेकलिस्ट मेनिफेस्टोभी एक असाधारण पुस्तक है जो किसी भी काम में गलतियों की रोकथाम और काम में पूर्ण सफलता के लिए आवश्यक सावधानियों को रेखांकित करती है।

सन् 2002 में प्रकाशित उनकी प्रथम पुस्तक कंप्लीकेशन्स बोस्टन के एक अस्पताल में रेजिडेंट सर्जन के रूप में उनके अनुभवों का संग्रह है। अक्सर डाक्टरों पर काम का बहुत बोझ होता है और जटिल आपरेशनों में उन्हें तुरत-फुरत निर्णय लेना होता है। दबाव की उन स्थितियों में भूल हो जाना या गलती हो जाना आम बात है। लेकिन एक छोटी-सी भूल अथवा गलती किसी रोगी की जान ले सकती है। ये डाक्टर भी इन्सान हैं जो जटिलतम परिस्थितियों में सैकेंडों में निर्णय लेने के लिए विवश हैं। इन्सान के रूप में हम गलतियों के पुतले हैं, अत: गलतियों की रोकथाम हमारे लिए सदैव से एक बड़ी चुनौती रही है। डा. गवांडे का कहना है कि वे इस बात में रुचि ले रहे थे कि लोग असफल क्यों होते हैं, समाज का पतन क्यों होता है, और इसकी रोकथाम कैसे की जा सकती है। अमरीका में जनस्वास्थ्य नीति के एक प्रमुख चिंतक के रूप में उभरे डा. अतुल गवांडे की दूसरी पुस्तक बैटरयह बताती है कि डाक्टर लोग सर्जरी के समय किस तरह गलतियों से बच सकते हैँ और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सर्जरी के समय कोई महत्वपूर्ण छूट न जाए।

उनकी हालिया पुस्तक द चेकलिस्ट मेनिफेस्टोएक कदम आगे बढ़कर पूर्ण विस्तार से बताती है कि यदि डाक्टर लोग काम की पूर्णता और शुद्धता, यानी, ‘कॉग्नीटिव नेटका पालन करते हुए जटिल आपरेशनों से पहले चेकलिस्ट बना लें तो केवल स्मरणशक्ति पर निर्भर रहने के कारण होने वाली भूलों से बचा जा सकता है और कई कीमती जानें बचाई जा सकती हैं। उनके इस विचार को विश्व के आठ अलग-अलग अस्पतालों में टेस्ट किया गया और यह आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि उन अस्पतालों में आपरेशन के बाद की मृत्यु दर में 50 प्रतिशत तक की कमी आ गई। पचास प्रतिशत! यह एक दुखदायी परंतु कड़वा सच है कि अस्पतालों में होने वाली मौतों का 50 प्रतिशत डाक्टरों की छोटी-छोटी भूलों और गलतियों से होता है, और इन गलतियों अथवा भूलों की रोकथाम करके बहुत से रोगियों की जानें बचाई जा सकती हैं।

डा. गवांडे ने दो और महत्वपूर्ण बातें कही हैं। अमरीका के कनेक्टिकट में स्थित हार्टफोर्ड अस्पताल में लगभग 50 वर्ष पूर्व लगी एक आग के बाद लोगों ने डाक्टरों अथवा अस्पताल प्रबंधन पर दोष मढऩे के बजाए बार-बार आग लगने के कारणों का पता लगाने का प्रयत्न किया तो अस्पताल में प्रयुक्त पेंट और सीलिंग की टाइलें अग्निरोधक नहीं थे और आग लगने की अवस्था में लोगों को बाहर निकालने की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण थी। इन परिणामों के बाद चेकलिस्ट एक विस्तृत चेकलिस्ट बनी और अमरीका में अस्पतालों के भवन निर्माण के नियमों में आवश्यक परिवर्तन किये गये।

दूसरी, और उससे भी कहीं ज्य़ादा महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि गलतियों की रोकथाम न की जाए तो समय बीतने के साथ-साथ हम जीवन में गलतियों और भूलों को जीवन का हिस्सा मानकर स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं। किसी कोर्स की पुस्तक संभावित गलतियों का जिक्र नहीं करती, कोई अध्यापक किसी कक्षा में गलतियों से बचने के तरीकों पर बात नहीं करता, और यहां तक कि जानलेवा गलतियां भी सामान्य जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। चेकलिस्ट की सहायता से हम उन गलतियों से बच सकते हैं।

डा. गवांडे के इस अनुभव में मैं सिर्फ इतना जोडऩा चाहूंगा कि जीवन के हर क्षेत्र में चेकलिस्ट का महत्व है। नौकरी में, व्यवसाय में, प्रशासन में, यात्रा में, हर जगह चेकलिस्ट का महत्व है और यदि हम इस छोटी-सी सावधानी का ध्यान रखें तो हम बहुत सी अनावश्यक असफलताओं से बच सकते हैं। ***

Significance of the Checklist
By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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Monday, February 20, 2012

Is our country a mere Election Constituency ? :: क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?




Is our country a mere Election Constituency ?
क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?

By : P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)


प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?    
           l  पी.के. खुराना


पिछले कुछ समय से राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में बहुत सक्रिय हैं क्योंकि वे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत देखना चाहते हैं। मीडिया भी राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा से संबंधित खबरें नमक-मिर्च-मसाले सहित पेश कर रहा है। वहीं भाजपा भी सुश्री उमा भारती के सहारे उत्तर प्रदेश में कुछ और सीटें जीतने की जुगत में है। चुनावी दंगल में यह सब सामान्य है। क्षेत्रीय दलों की बात छोड़ दें तो ये दोनों देश के प्रमुख राष्ट्रीय दल हैं जो उत्तर प्रदेश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

पर ऐसा क्यों है कि चुनाव के समय राजनेता सक्रिय हो जाते हैं और घोषणाओं और तमाशों का अंबार लगा देते हैं और चुनाव के बाद सब सो जाते हैं, यहां तक कि अक्सर मीडिया भी सो जाता है और जनता भी मान लेती है कि चूंकि अब चुनाव का समय नहीं रहा अत: नेताओं का उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। चुनाव के बाद गाहे-बगाहे पक्ष और विपक्ष के नेताओं के बयान आते हैं जब वे सरकार की किसी नीति पर कोई टिप्पणी करते हैं पर ज्य़ादातर मामलों में वे बयान, बयानों तक सीमित रह जाते हैं, ज़मीन के स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं होती, जब तक कि कोई बड़ा कांड न हो जाए और उस कांड के माध्यम से बड़े प्रचार की उम्मीद न हो।

चुनाव के बाद अक्सर विश्लेषक लोग यह कहते सुने जाते हैं कि जनता ने सबको (विश्लेषकों सहित) आश्चर्यचकित किया है और जनता बहुत समझदार हो गई है तथा जनता अब अपना वोट अपनी मर्जी से देती है। अगर हम सचमुच बहुत समझदार हो गए हैं तो ऐसा क्यों होता है कि मीडिया को तथा स्वयंसेवी संस्थाओं को लोगों को वोट डालने की अपील के अभियान चलाने पड़ते हैं? सब जानते हैं कि आज भी देश में शराब, कंबल और नोटों से वोट खरीदे और बेचे जाते हैं; जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और राज्य के नाम पर वोटों का बंटवारा होता है। राजनेता इसे बखूबी जानते हैं और वोट लेने के लिए हर हथियार आजमाते हैं। अफसोस यह है कि ज़मीनी हकीकतों से नावाकिफ टीवी और अखबारों के विद्वान पत्रकार और स्वतंत्र विश्लेषक लोग अपना अनाड़ीपन छुपाने के लिए जनता समझदार हो गई हैका जुमला उछालते हैं। चुनाव परिणामों के बारे में पूरी तरह से गलत भविष्यवाणी करने और सार्वजनिक रूप से देश से माफी मांगने के बावजूद अगली बार भी वे ही विश्लेषक हर टीवी चैनल पर नज़र आते हैं और असलियत की तह तक गए बिना उसी बेशर्मी से अगली भविष्यवाणियां करते हैं।

आज राजनेता देश और जनता को महज़ एक चुनाव क्षेत्र और जनता को सिर्फ मतदाता के रूप में ही देखते हैं। उनकी रणनीति, घोषणाएं और सारे कामकाज वोट बैंक बनाने की नीयत से संचालित होते हैं। अफसोस की बात यह है कि मीडिया भी उनकी इस चाल को पहचान नहीं पाया है बल्कि मीडिया भी देश और जनता के साथ चुनाव क्षेत्र और मतदाता की ही तरह व्यवहार करता है।

चुनाव के बाद विपक्ष की क्या भूमिका है? सरकारी नीतियों की आलोचना करना, सदन में शोर मचाना, सदन से बहिर्गमन करना और आंदोलन करना मात्र? क्या विपक्ष के पास किसी रचनात्मक काम की कोई योजना नहीं होनी चाहिए? क्या विपक्ष जनता की समस्याओं के समाधान के लिए कोई कार्यक्रम नहीं चला सकता? क्या हर रचनात्मक कार्यक्रम चलाने के लिए सरकार में होना ही आवश्यक है?

सरकार बन जाने पर क्या यह नहीं होना चाहिए कि सरकार अपने कामकाज की अर्धवार्षिक अथवा वार्षिक समीक्षा करे और बताए कि चुनाव घोषणा पत्र में से कितने वायदे पूरे हो गए, कितने बाकी हैं और जो बाकी हैं उनकी स्थिति क्या है?

चुनाव के बाद सरकार और विपक्ष के कामकाज की सर्वांगीण समीक्षा के लिए मीडिया कितने अभियान चलाता है? जनमत निर्माण में यहां बुद्धिजीवियों और मीडिया की भूमिका की समीक्षा भी आवश्यक है। और, इससे भी ज्य़ादा आवश्यक है कि चुनाव की मारामारी खत्म हो जाने के बाद जनता के सभी वर्गों में जागरूकता के लिए कोई नियोजित अभियान चलाया जाए। लोकसभा और राज्यसभा में ऐसे बहुत से लोग चुने गए जो शपथ लेने के बाद सदन में गए ही नहीं, या फिर अपने कार्यकाल की पूरी अवधि में एक बार भी बोले ही नहीं। क्या ऐसे लोगों की अलग से पहचान आवश्यक नहीं है? क्या मतदाताओं को ऐसे लोगों की कारगुज़ारी के बारे में सूचित करना आवश्यक नहीं है?

सवाल यह है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, जब तक एक नागरिक के रूप में हम जागरूक नहीं होंगे, अपने अधिकारों और कर्तव्यों की बारीकियां नहीं समझेंगे तब तक यही होता रहेगा। सच तो यह है कि इसमें राजनेताओं को दोष सबसे कम है, क्योंकि उन्हें तो येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना है, और हो सके तो बहुमत प्राप्त करना है ताकि वे सत्ता में आ सकें। मतदाता के रूप में यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, राज्य और पार्टी से ऊपर उठकर सोचें और सही प्रत्याशी का समर्थन करें। चुनाव के बाद भी पक्ष-विपक्ष के नेताओं की लगाम खींचते रहें और उन्हें अहसास दिलाते रहें कि हम जनता हैं और हम निर्वाचक हैं। यह बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वे इस पर सेमिनार करें, बहस करें, आंदोलन करें। इसी प्रकार यह मीडिया का कर्तव्य है कि चुनाव के बाद भी वह चुनाव और पक्ष-विपक्ष के कामकाज को लेकर लगातार जनमत तैयार करते रहें। यह एक अनवरत प्रक्रिया होनी चाहिए, जो फिलहाल नहीं है।

देखा तो यह भी गया है कि कोई मीडिया घराना सूखी होली के पक्ष में अभियान चलाता है, पर वह अभियान इतना कागज़ी होता है कि उस संस्थान से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी और पत्रकार भी खुद सूखी होली नहीं मनाते और वह अभियान दरअसल सिर्फ अखबार में छपे विज्ञापनों तक ही सीमित होकर रह जाता है।

हमारे देश में अभी पौधारोपण कार्यक्रम के बाद, उन पौधों की सुरक्षा की संस्कृति नहीं बन पाई है। दहेज़ ने लेने की शपथ दिलाने वाली संस्थाएं उसके बाद शपथ लेने वालों का ट्रैक नहीं रखतीं। अब हमें का$गज़ी कार्यवाहियों की संस्कृति से ऊपर उठना होगा और प्रचार या ग्रांट के लिए कार्यक्रम आयोजित करने वाली संस्थाओं की असलियत को समझना होगा और नीति के साथ-साथ नीयत को भी परखना होगा। हमें खुद जागरूक होना होगा और अपने आसपास के लोगों को जागरूक करना होगा। हमें दीपक जलाना होगा और उस दीपमाला में परिवर्तित करना होगा। यह हमारी जिम्मेदारी है, हम सबकी जिम्मेदारी है। v


Sunday, January 22, 2012

From Quick Fix Solution to Invention : जुगाड़ से आविष्कार तक



From Quick Fix Solution to Invention : जुगाड़ से आविष्कार तक

Jugaad Se Aavishkaar Tak : जुगाड़ से आविष्कार तक

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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जुगाड़ से आविष्कार तक
            --  पी. के. खुराना

भारत में हम यह मान कर चलते हैं कि आविष्कार पश्चिमी देशों में होते हैं। एक आम धारणा है कि विकसित देशों में उच्च तकनीक और बढिय़ा साधन मौजूद हैं अत: शोध एवं विकास के ज्य़ादातर कार्य वहीं संभव हैं। यहां हम छोटे-मोटे जुगाड़ किस्म के आविष्कारों से भी प्रसन्न हो लेते हैं या फिर किसी बढिय़ा नकल को ही भारतीय लोगों की काबलियत की निशानी मान लेते हैं। चूंकि हमारे देश में बुद्धि, सुविधाओं और धन की कमी है अत: हम यह मानते हैं कि हम आविष्कारक नहीं हैं, और इस मामले में हम पश्चिम का मुंह जोहने के लिए विवश हैं।

यही नहीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भारतीय शाखाएं अपने विदेशी आकाओं से आयातित चीजों में मामूली बदलाव करके उनका भारतीयकरण करने में ही अपनी प्रतिभा की सार्थकता मान लेते हैं और किसी बड़े आविष्कार की बात सोचते तक नहीं, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सभी बाधाओं के बावजूद कुछ करने की ठान लेते हैँ और उसे कर दिखाते हैं।

अक्सर यह भी माना जाता है कि आविष्कार करने के लिए पहले मन में कोई विचार आना चाहिए, उसके लिए किसी नये, अभिनव और 'इन्नोवेटिव आइडियाकी आवश्यकता होती है। वास्तव में यह पूर्ण सत्य नहीं है। सच तो यह है कि कुछ कर दिखाने के लिए पहले सपना होना चाहिए, इरादा होना चाहिए, दृढ़ निश्चय होना चाहिए, रास्ता खुद-ब-खुद निकल आता है। कठिनाइयां आती हैं, रुकावटें आती हैं पर दृढ़ निश्चयी व्यक्ति उनका सामना करते हुए राह बनाता चलता है। दुनिया के ज्य़ादातर आविष्कारों की कहानी कुछ ऐसी ही है। और सच यह है कि ऐसे लोगों की भारत मे भी कमी नहीं है, सिर्फ हमारा मीडिया और समाज उन तक पहुंचता नहीं है, उन्हें पहचानता नहीं है। पश्चिम में एक छोटा सा आविष्कार हो जाए तो सारा भारतीय मीडिया उसके गाने गाने लगता है और भारत के कई बड़े-बड़े आविष्कारों के बारे में भी खुद भारतीयों को भी जानकारी नहीं है।

आंध्र प्रदेश के निवासी श्री वाराप्रसाद रेड्डी ने हैपेटाइटस बी के निवारण के लिए वैक्सीन तैयार की जो पहले एक बहुराष्ट्रीय कंपनी सप्लाई करती थी और उसकी हर डोज़ की कीमत 750 रुपये थी। श्री वाराप्रसाद रेड्डी की वैक्सीन बाज़ार में आने पर बहुराष्ट्रीय कंपनी को अपनी वैक्सीन की कीमत इस हद तक घटानी पड़ी कि वह 750 रुपये के बजाए महज़ 50 रुपये में बिकने लगी और एक समय तो उसकी कीमत 15 रुपए पर आ गई थी। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है कि एक आम हिंदुस्तानी ने अपने दृढ़ निश्चय के बल पर एक शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनी को घुटने टेकने पर विवश कर दिया।

बहुत सालों पहले निरमा वाशिंग पाउडर ने ऐसी ही कहानी लिखी थी, केविनकेयर के श्री सी. के. रंगनाथन ने भी यही किया था जिन्होंने हिंदुस्तान लीवर को बगलें झांकने पर विवश कर दिया। जहां निरमा ने सर्फ को टक्कर दी और अपने लिए एक बड़ा बाज़ार निर्मित किया वहीं केविनकेयर ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों हिंदुस्तान लीवर (अब हिंदुस्तान युनिलीवर) तथा प्रॉक्टर एंड गैंबल के उत्पादों से बाज़ार छीना। श्री रंगनाथन ने सैशे में शैँपू देना शुरू किया ताकि वह उन लोगों के बजट में भी आ सके जो महंगा होने के कारण शैंपू का प्रयोग नहीं कर पाते। उनकी यह जीत इतनी बड़ी थी कि अंतत: हर प्रतियोगी कंपनी को उनकी रणनीति की नकल करनी पड़ी।

घडिय़ों के मामले में दुनिया भर में स्विटज़रलैंड का सिक्का चलता है। यह माना जाता है कि स्विटज़रलैंड की घडिय़ां दुनिया में सबसे बढिय़ा होती हैं और घडिय़ों के निर्माण में नये आविष्कार स्विटज़रलैंड में ही होंगे। लेकिन भारतीय कंपनी टाटा विश्व की सबसे पतली वाटरप्रूफ घड़ी 'टाइटैन एज्जबनाकर दुनिया भर को चमत्कृत कर दिया। टाटा ने ही लखटकिया कार टाटा नैनो बनाकर एक और नया रिकार्ड कायम किया।

ऐसे अनेकोंनेक उदाहरण हैं जहां भारतीयों ने बेहतरीन आविष्कार किये हैं, बहुराष्ट्रीय प्रतियोगियों को पीछे छोड़ा है लेकिन उनकी यशोगाथा कम ही गाई गई है। इन असाधारण आविष्कारकों का यशगान ही काफी नहीं है, वस्तुत: हमें यह समझना होगा कि दृढ़ निश्चय से सब कुछ संभव है, बड़े-बड़े आविष्कार संभव हैं। टाटा ने विश्व की सबसे सस्ती कार बनाकर दिखा दी, टाइटैन ने सबसे स्लिम वाटरप्रूफ घड़ी बनाकर दिखा दी लेकिन यह तर्क दिया जा सकता है कि टाटा समूह के पास प्रतिभा, साधन और धन की कमी नहीं है। हां, यह सही है कि टाटा समूह के पास न प्रतिभा की कमी है और न ही धन की, लेकिन श्री सी. के. रंगनाथन और श्री वाराप्रसाद रेड्डी तो ने तो साधनों की कमी के बावजूद सिर्फ दृढ़ निश्चय के कारण अपना सपना पूरा कर दिखाया। सच तो यह है कि सपना महत्वपूर्ण है, सपना नहीं मरना चाहिए, सपना रहेगा तो पूरा होने का साधन बनेगा, सपना ही नहीं होगा तो हम आगे बढ़ ही नहीं सकते।

सपना होगा तो हम सफल होंगे, समृद्ध होंगे, विकसित होंगे और अपनी सफलता का परचम लहरा सकेंगे।

हाल ही में 'बुलंदीनाम के एक एनजीओ ने ग्रामीण और अनपढ़ महिलाओं को पापड़, मुरब्बा, अचार बनाना सिखाकर, तथा पढ़े-लिखे ग्रामीण युवकों को कंप्यूटर का प्रशिक्षण देकर हर साल 25,000 नये लोगों को रोजगार देने का बीड़ा उठाया है। इससे पहले इस एनजीओ ने देश के अलग-अलग भागों से 100 से भी अधिक ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की जो घोर गरीबी से उबरकर अमीर बने थे। इन लोगों के पास न साधन थे, न संपर्क। सिर्फ दृढ़ निश्चय, मेहनत और लगन के बल पर वे अमीर बने। सर्वेक्षण के माध्यम से उनकी सफलता का राज़ जानने का प्रयत्न किया गया और छ: ऐसे सामान्य कारण बताए गए जिनकी सहायता से कोई भी व्यक्ति अमीर बन सकता है।

लब्बोलुबाब यह कि सही सोच और दृढ़ निश्चय से सब कुछ संभव है। हमें इसी ओर काम करने की आवश्यकता है ताकि हम गरीबी से उबर कर एक विकसित समाज बन सकें। ये सारे उदाहरण यह सिद्ध करने के लिए काफी हैं कि देश के हम आम आदमी भी भारतवर्ष को ऐसा विकसित देश बना सकते हैं जहां सुख हो, समृद्धि हो, रोज़गार हो और आगे बढऩे की तमन्ना हो। कौन करेगा यह सब? मैं, आप और हम सब। आमीन!  ***

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Rise of Peoples' Power : लोकशक्ति के उदय का साल



Rise of Peoples' Power : लोकशक्ति के उदय का साल

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


Pioneering Alternative Journalism in
India

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लोकशक्ति के उदय का साल
                                    l  पी. के. खुराना

हमारा देश इस समय हर ओर मुसीबतों से घिरा नज़र आ रहा है। महंगाई ने सभी बजट बिगाड़ दिये हैं। रुपया अपने निम्नतम स्तर पर है। निर्यात का बुरा हाल है, जबकि आयात लगातार महंगा होता जा रहा है। शेयर बाज़ार ने कइयों को धोखा दिया है। विभिन्न घोटालों के शोर के बीच भारत सरकार की कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियां भी दब कर रह गई हैं। यह पहली बार हुआ है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत साख बुरी तरह से प्रभावित हुई है और आम जनता उनकी क्षमताओं के बारे में विश्वस्त नहीं है। हम एक और मंदी की ओर बढ़ रहे प्रतीत होते हैं और यदि मंदी की शुरुआत हो गई तो इस बार भारतवर्ष के पास बचाव के वैसे साधन नहीं हैं जैसे 2008 की मंदी के समय थे, और आशंका यही है कि इस बार की मंदी का परिणाम भारत के लिए अच्छा नहीं होगा।

पिछले साल का लेखा-जोखा बहुत तरह से हो चुका है और हर विश्लेषण में निराशा के गहरे स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। सन् 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दोबारा सत्ता में आने के बाद सन् 2010 की शुरुआत अच्छी थी। सुश्री ममता बैनर्जी ने कम्युनिस्टों का 35 साल पुराना किला ध्वस्त करके पश्चिम बंगाल में इतिहास रचा। उनके 12 साल लंबे संघर्ष की परिणति के रूप में वे राज्य की मुख्यमंत्री बनीं। कांग्रेस और जयललिता के गठबंधन ने करुणानिधि को भी धूल चटाई। परंतु साल के मध्य में बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन को हल्के से लेने की गलती के बाद केंद्र सरकार गलती पर गलती करती चली गई और कांग्रेस तथा इसके बड़बोले प्रवक्ताओं को मुंह की खानी पड़ी। अंतत: संसद को भी बुज़ुर्ग अन्ना हज़ारे के पक्ष में एकमत प्रस्ताव पास करना पड़ा।

हज़ारों-हज़ार निराशाओं, कुंठाओं और कठिनाइयों के बीच भी सन् 2010 एक खास बदलाव के लिए जाना जाएगा। इतिहास में सन् 2010 को लोकशक्ति के उदय के लिए याद किया जाएगा। समाजसेवी अन्ना हज़ारे के कारण पिछला वर्ष एक बड़े परिवर्तन का साल रहा कि लोगों ने देश भर में एकजुटता दिखाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध रोष प्रदर्शन इतना ज़बरदस्त रहा कि सरकार घुटनों के बल चलती हुई अन्ना के दरबार में हाजिरी भरती नज़र आई।

हालांकि बीच-बीच में संदेह के बादल भी घिरते रहे। पहले बाबा रामदेव ने अन्ना के आंदोलन की फूंक निकालने की कोशिश की परंतु वे एक कमज़ोर व्यक्ति साबित हुए और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षांओं पर कुछ समय के लिए तो विराम लग ही गया है। फिर कभी श्री शशि भूषण पर, कभी श्री अरविंद केजरीवाल पर तथा कभी श्रीमती किरन बेदी पर भी आरोप लगे, लेकिन भ्रष्टाचार पर रोक के लिए जन लोकपाल की मांग इससे ज्य़ादा प्रभावित नहीं हुई और सभी आरोपों और संदेहों के बावजूद लोग एकजुट रहे।

जब बाबा अन्ना हज़ारे पहली बार दिल्ली में अनशन पर बैठे तो देश भर से उन्हें जो जनसमर्थन मिला वह अनपेक्षित था और मीडिया ने जैसे ही इसे नोटिस किया, मीडिया भी अन्ना जी के साथ हो लिया। इस बार सोशल मीडिया ने भी सूचनाएं देने और लोगों को एकजुट करने में बड़ी भूमिका निभाई। पारंपरिक मीडिया के समर्थन और सोशल मीडिया में जनता की सक्रियता के चलते लोगों का जोश बढ़ा और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन मजबूत होता चला गया। यह लोकशक्ति का ऐसा उदय था जैसा इससे पहले सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश के समग्र क्रांति के आंदोलन के समय ही देखा गया था। अपने कामकाज की परवाह किये बिना, हज़ारों-हज़ार लोगों का समूह अन्ना जी के समर्थन में खड़ा नज़र आया। लोकशक्ति के उदय का ही परिणाम था कि गुंडों की भाषा में बात कर रहे कांग्रेस के कुछ नेताओं को अंतत: अन्ना जी से माफी मांगनी पड़ी। यह कमाल अन्ना जी की साफ-सुथरी और जुझारू छवि का तो था, पर उससे भी ज्य़ादा यह लोकशक्ति का कमाल था। अगर लोग उनके साथ न जुड़े होते तो सरकार इस तरह न झुकती और अगर राजनीतिक दलों को जनता का यह उदय न दिखता तो वे अन्ना के समर्थन में न बोलते। अन्ना का समर्थन अथवा विरोध करने में किसी भी राजनीतिक दल का कुछ भी स्वार्थ रहा हो, यह निश्चित है कि राजनीतिक दलों के सुर इस लिए बदले क्योंकि अन्ना जी को लोगों का भारी समर्थन मिला।

हालांकि बाद में कांगेस ने राजनीतिक षड्यंत्र करते हुए घोर जनविरोधी लोकपाल बिल संसद में पेश कर दिया जो लोकसभा में पास भी हो गया पर राज्यसभा में ज्यों का त्यों पास नहीं हुआ और सरकार को बहाना और समय दोनों मिल गए। दूसरी गड़बड़ी यह हुई कि ठंड के कारण मुंबई के हालिया अनशन में लोगों का समर्थन वैसा नहीं दिखा जैसा दिल्ली में दिखा था। यही नहीं, वृद्ध और कृशकाय अन्ना हज़ारे का स्वास्थ्य एकदम से गड़बड़ा गया और उन्हेंं अपना अनशन बीच में ही तोडऩा पड़ा। हो सकता है अब कुछ समय के लिए यह आंदोलन कमज़ोर पड़ता नज़र आये पर यह अंतत: फिर मजबूत होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ी जनता कई तरीकों से अपना रोष ज़ाहिर करेगी। कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। अन्ना के अनशन का कुछ प्रभाव कहीं न कहीं अवश्य दिखेगा। पिछले साल के मध्य तक पंजाब में कांग्रेस भारी बहुमत से वापिसी करती नज़र आ रही थी पर साल का अंत आते-आते स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आ गया और अकाली-भाजपा गठबंधन से कांग्रेस की लड़ाई अब संघर्ष में बदल गई है जिसमें ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है।


अभी यह कहना दूर की कौड़ी है कि जनता को अपनी मंजि़ल मिल गई है या अन्ना जी के अनशन का कोई बड़ा तात्कालिक प्रभाव होगा ही। तो भी, यही भी सच है कि लोकपाल बिल आया ही जनता के दबाव में। यह स्पष्ट है कि यदि बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन की शुरुआत ही कमज़ोर होती तो कांग्रेस लोकपाल बिल लाती ही नहीं। लोकपाल का यह बिल कितना ही विवादास्पद रहा हो, या इस बिल का तात्कालिक परिणाम क्या हो, यह एक अगल बात है पर यह तो निश्चित है कि अन्ना के अनशन के दूरगामी परिणाम हुए हैं और जनता ने अपनी शक्ति को पहचाना है। यह खेद की बात है कि प्रमुख राजनीतिक दलों में से कोई भी जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है और कांग्रेस अभी भी 'टीना' (देयर इज़ नो अल्टरनेटिव) फैक्टर का लाभ उठा रही है। पर इसमें निराश होने का कोई कारण नहीं है। जनता के दबाव के कारण राजनीतिक दलों ने सुर बदले हैं, जनशक्ति के उदय को पहचानते हुए उनके रुख में और भी परिवर्तन आयेगा और अंतत: लोकशक्ति को अपना वांछित स्थान और सत्कार अवश्य मिलेगा।     v

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Thursday, November 24, 2011

एकल महिलाओं की समस्याएं :: Problems of Single Women



एकल महिलाओं की समस्याएं :: Problems of Single Women

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Alternative Journalism
वैकल्पिक पत्रकारिता

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एकल महिलाओं की समस्याएं
-- पी. के. खुराना

हाल ही में नई दिल्ली में महिलाओं के एक संघ की सदस्या महिलाएं समाज और सरकार के रवैये के प्रति अपना विरोध जताने के लिए इकट्ठी हुईं। देश की राजधानी दिल्ली के लिए यह कोई नई बात नहीं है कि किसी संगठन के लोग विरोध प्रदर्शन के लिए आए। इन महिलाओं के विरोध प्रदर्शन में भी ऐसा कुछ उल्लेखनीय अथवा खास नहीं था, अगर कुछ खास था तो वह था इस संगठन की प्रकृति और इसके उद्देश्य जिसने मुझे महिलाओं की एक और समस्या पर फिर से सोचने के लिए विवश किया।

'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' नामक इस संगठन की सदस्या महिलाओं में विधवाएं, परित्यक्ताएं, तलाकशुदा महिलाएं व ऐसी अविवाहित महिलाएं शामिल हैं जो अपने परिवार और समाज से उपेक्षापूर्ण व्यवहार का दंश झेल रही हैं। इनमें से अधिकांश ग्रामीण पृष्ठभूमि की साधनहीन महिलाएं हैं जिनके पास अपनी कठिनाइयां बताने का कोई उपाय नहीं था। यह संगठन ऐसी महिलाओं के अधिकारों की वकालत ही नहीं करता बल्कि उन्हें अधिकारों के प्रति शिक्षित भी करता है। इससे भी बड़ी बात, यह सिर्फ ऐसी वंचिता महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने के साथ-साथ उनके ससुराल पक्ष के परिवारों को काउंसलिंग के माध्यम से उनके बीच की गलतफहमियां दूर करके परिवारों को जोडऩे का प्रयत्न भी करता है। यानी, 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' अधिकारों की वकालत करते हुए सिर्फ झगड़ा बढ़ाने का ही काम नहीं करता, बल्कि झगड़ा निपटाने का रचनात्मक प्रयत्न भी करता है।

अपने ममतामयी दृष्टिकोण के लिए जानी जाने वाली महिलाएं विपरीत स्थितियों में खुद कितनी उपेक्षा का शिकार होती हैं, इसकी कहानी सचमुच अजीब है। पुरुष प्रधान समाज में अकेली महिलाओं की स्थिति अक्सर शोचनीय होती है और उन पर कई और नए बंधन लाद दिये जाते हैं। विधवा महिलाएं ससुराल में शेष सदस्यों के अधीन हो जाती हैं, परित्यक्ताएं और तलाकशुदा महिलाएं तो कई बार अपने मायके में भी दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर रह जाती हैं। घर में सारा दिन काम करते रहने पर भी उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, स्वतंत्रता नहीं मिलती और अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता। विधवाओं की कठिनाइयों के बारे में तो फिर गाहे-बगाहे बात होती रहती है लेकिन परित्यक्ताओं, तलाक शुदा एकल महिलाओं, किसी भी विवशतावश अविवाहित रह गई महिलओं की समस्याओं के बारे में हम शायद ज्य़ादा जागरूक नहीं हैं।

एकल महिलाओं को हिंसा, शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवैतनिक कामकाज के अलावा यौन शोषण की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांवों में उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं होता, समाज की रूढि़वादिता और संस्कार उन्हें विरोध करने से रोकते हैं और वे असहाय पिसती रह जाती हैं। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार ऐसी महिलाओं की संख्या तीन करोड़ साठ लाख के आसपास थी और इनमें से अधिकांश विधवाएं थीं। सन् 2011 में संपन्न जनगणना में एकल महिलाओं की गिनती का विवरण अभी नहीं आया है।

यही नहीं, जिन परिवारों में मर्द लोग कामकाज के सिलसिले में शहर से बाहर रहने को विवश हैं वहां उनकी पत्नियां घर में अकेली पड़ जाती हैं और कई तरह की समस्याएं झेलती हैं लेकिन ज़ुबान नहीं खोल पातीं। घर से बाहर रह रहा मर्द अगर कठिनाइयां झेल कर पैसे कमाता है तो घर में अकेली पड़ गई उसकी पत्नी भी कई तरह से अपमान और उपेक्षा का शिकार हो रही हो सकती है। महिलाओं की शारीरिक बनावट के कारण उनकी समस्याएं अलग हैं। यही नहीं, उनकी भावनात्मक सोच भी पुरुषों से अलग होती है और अक्सर पुरुष उसे नहीं समझ पाते। इसके कारण भी कई बार महिलाओं को कई तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। इससे भी ज्य़ादा बड़ी समस्या तब आती है जब रोज़गार के सिलसिले में मर्द शहर से बाहर जाता है और वहीं पर दूसरा विवाह कर लेता है। ऐसे बहुत से पुरुष अपनी पहली पत्नी को अक्सर पूरी तरह से बिसरा देते हैं या फिर दोनों महिलाओं से झूठ बोलते रह सकते हैं।

हिमाचल प्रदेश निवासी 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' की सदस्या निर्मल चंदेल इस पहाड़ी राज्य की महिलाओं की इस व्यथा का बखान करते हुए कहती हैं कि हिमाचल प्रदेश में रोज़गार की बहुलता न होने के कारण मर्दों का राज्य से बाहर प्रवास जितना आम है, नये शहर में बस कर आधुनिका महिलाओं अथवा महिला सहकर्मियों से दूसरी शादी भी कम आम नहीं है। हिमाचल प्रदेश जैसे कम आबादी वाले छोटे से राज्य से ही 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' की सदस्याओं की संख्या 9,000 से कुछ ही कम है। इसीसे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितनी बड़ी संख्या में महिलाएं शोषण और उपेक्षा का शिकार हो रही हैं।

महिलाओं की एक अन्य समस्या को भी पुरुष अक्सर नहीं समझ पाते और अक्सर उसका परिणाम यह होता है कि पूरा परिवार बिखर जाता है। करियर के जाल में फंसा पुरुष वर्ग पत्नी और परिवार की उपेक्षा की गंभीरता को समझ ही नहीं पाता, कई बार तो तब तक जब परिवार टूट ही न जाए या टूटने के कगार पर ही न पहुंच जाए। तब भी पुरुष लोग यह नहीं समझ पाते कि वे कहां गलत थे। वे तो तब भी यही मान रहे होते हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे थे वह परिवार की भलाई, खुशी और समृद्धि के ही लिए था। यहां पतियों और पत्नियों का नज़रिया एकदम अलग-अलग नज़र आता है। पत्नियां पैसा कम और पति का साथ ज्य़ादा चाहती हैं और पति यह मानते रह जाते हैं कि यदि उनके पास धन होगा तो वे पत्नी के लिए सारे सुख खरीद सकेंगे। बिना यह समझे कि उनकी पत्नी की भावनात्मक आवश्यकताएं भी हैं और उनकी पूर्ति के लिए उन्हें पति के पैसे की नहीं, बल्कि पति के संसर्ग और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है।

हमारा देश तेजी से विकास कर रहा है, हमारे जीवन स्तर में सुधार हो रहा है लेकिन सोच बदलने में समय लग रहा है, खासकर ग्रामीण इलाकों में अभी भी रुढि़वादिता का बोलबाला है। अब समय आ गया है कि हम पुरुष समाज को महिलाओं की आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित करें और महिलाओं के प्रति ज्य़ादा सौहार्दपूर्ण रवैया अपनाएं ताकि समाज के दोनों अंगों का समान विकास संभव हो सके और समाज में संतुलन बना रहे। ***

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Sunday, October 30, 2011

स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता :: Wellness, Prosperity & Success

स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता :: Swasthya, Smriddhi Aur Safalata

Wellness, Prosperity & Success

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता
                                                पी. के. खुराना

बहुत साल पहले मुझे जनसामान्य में पीजीआई के नाम से विख्यात, चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑव मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में आयोजित एक सेमिनार में शामिल विश्व भर के डाक्टरों के विचार सुनने का मौका मिला जिसमें बताई गई बातों का सार यह था कि व्यक्ति जवानी में सफलता के लिए अथक मेहनत करता है। अक्सर उसे घर से दूर रहना पड़ता है, शहर, राज्य या देश छोड़ कर परदेसी होना पड़ता है, पर करियर की सफलता के आदमी यह सब बर्दाश्त करता है, दिन रात मेहनत करता है और खुश होता है कि वह सफलता की सीढिय़ां चढ़ता चल रहा है। जवानी में शरीर अपने ऊपर हुई इन ज्य़ादतियों को बर्दाश्त करता चलता है पर चालीस की उम्र के बाद शरीर में भिन्न-भिन्न बीमारियों के लक्षण उभरने लगते हैं, आदमी दवाइयों पर निर्भर होने लगता है और जब व्यक्ति इतना अनुभवी हो जाता है कि लोग-बाग उसके ज्ञान का लोहा मानने लगते हैं और वह और भी तेजी से उन्नति कर सकता है तब शारीरिक व्याधियां उसकी राह में रोड़ा बनना शुरू हो जाती हैं, व्यक्ति की कार्यक्षमता घटनी शुरू हो जाती है और वह उस उन्नति से महरूम रह जाता है, जिसके कि वह काबिल है, या फिर वह अपने शरीर की आवश्यकताओं की और ज्य़ादा उपेक्षा करने लगता है और अंतत: अगले कुछ सालों में और भी ज्य़ादा बड़ी बीमारियों से घिर जाता है।

कहा गया है कि आदमी पहले धन कमाने के लिए स्वास्थ्य गंवाता है, फिर स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए धन खर्च करता है और अंतत: दोनों गंवा लेता है। बहुत से मामलों में यह विश्लेषण एकदम सटीक है। यह सच है कि धन कमाना आसान नहीं है, धन चला जाए तो उसकी भरपाई में बड़ी मुश्किलें आती हैं, कई बार तो दोबारा उस स्तर तक पहुंच पाना संभव ही नहीं हो पाता, या धन कमाना शुरू होने पर छूट गए अवसरों की भरपाई भी शायद हमेशा संभव नहीं होती तो भी यह सच है कि धन कमाने के अवसर आते रह सकते हैँ पर ज्य़ादा धन कमाने की धुन में शरीर को ऐसी बहुत सी बीमारियां लग जाती हैं जो जीवन भर साथ नहीं छोड़तीं। फिर न आप नमक खा सकते हैं, न मीठा। कई तरह की इच्छाओं को लेकर मन मारना पड़ता है और जीवन का असली स्वाद पीछे रह जाता है।

हमारे स्कूलों में फिजि़कल एजुकेशन एक विषय भर है, विद्यार्थियों को उसकी असली आवश्यकता से कभी परिचित नहीं करवाया जाता। सर्दियों के दिनों में भी छोटे-छोटे बच्चे बिस्तर से बाहर निकलते ही स्कूल के लिए तैयार होने लगते हैं, व्यायाम या योग के लिए उनके जीवन में कोई जगह नहीं होती, न ही उन्हें नियमित व्यायाम का महत्व ढंग से सिखाया जाता है। मां-बाप जीवन निर्वाह के लिए पैसा कमाने की चक्की में पिस रहे होते हैं और बच्चे स्कूलों में किताबों में सिर खपाते रह जाते हैं। परिणाम यह होता है कि पढ़ाई खत्म होते ही आदमी नौकरी या व्यवसाय के चक्कर में पड़ जाता है और व्यायाम को सिरे से उपेक्षित कर देता है।

यह खेदजनक है कि व्यायाम हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग नहीं बन पाया है जिससे स्वास्थ्य संबंधी सारी व्याधियां पैदा हो रही हैं, और जब तक व्यक्ति कुछ सफल होकर जीवन का आनंद लेने के काबिल होता है तब उसके शरीर को कोई न कोई ऐसी बीमारी लग चुकी होती है कि वह जीवन के आनंद से महरूम रहने के लिए विवश हो जाता है।

देश भर में बहुत से जिम और योग केंद्र हैं लेकिन दोनों में आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। बहुत से जिम बच्चों को नशीली दवाओं की आदत डालने के लिए बदनाम हुए और योग केंद्रों के अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित कर्णधार व्यक्ति की क्षमता और उम्र की परवाह किये बिना सबको एक जैसा पाठ पढ़ाते हुए कई बार उन्हें नई व्याधियों का उपहार दे डालते हैं। बहुत से योग गुरू योग कैंप का आयोजन करते हैं पर ये शिविर इतनी छोटी अवधि के होते हैं कि उनसे लोगों में नई आदतें स्थाई नहीं हो पातीं। योग कैंप की समाप्ति के बाद फिर से वही पुरानी दिनचर्या आरंभ हो जाती है और शिविर का कोई स्थाई लाभ लोगों को नहीं मिल पाता। योग कैंप की महत्ता को सिरे से नकारना तो गलत है पर इन्हें ज्य़ादा उपयोगी बनाने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।

कुछ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चिकित्सकों से स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को लेकर मेरी बातचीत से मुझे जो समझ में आया उसका सार यह है कि यदि हम हर सुबह लगभग एक घंटा और रात को खाना खाने से पहले आधा घंटा सैर करें तो हम उम्र भर अधिकांश बीमारियों से बचे रह सकते हैं। ब्रिस्क वॉक के नाम से जानी जाने वाली यह सैर साधारण से कुछ तेज़ चाल में पूरी की जाती है। हालांकि इस मामले में मतैक्य नहीं है तो भी ज्य़ादातर डॉक्टरों का यह मानना है कि ब्रिस्क वॉक, जॉगिंग से भी ज्य़ादा सुरक्षित और लाभदायक है। इस संबंध में एक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि पहले बीस मिनट की सैर के बाद ही हमारे शरीर के अंग खुलने शुरू होते हैं और सैर का असली लाभ उसके बाद मिलता है, अत: सैर की अवधि 40 मिनट से 60 मिनट के बीच रहना आवश्यक है। इससे कम अवधि की सैर का लाभ कम होगा। सवेरे की सैर करने वाले व्यक्तियों के लिए रात्रि सैर की आधे घंटे की अवधि भी काफी है। रात्रि की सैर को लेकर भी कई भ्रम हैं। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि रात्रि के भोजन से पूर्व ब्रिस्क वॉक दवाई की तरह है। भोजन के बाद तेज़ सैर नहीं की जानी चाहिए। यदि आप रात्रि के भोजन के बाद सैर के लिए निकलते हैं तो टहलने जैसा होना चाहिए जिसका उद्देश्य यह है कि खाना खाते ही बिस्तर पर नहीं जाना चाहिए बल्कि नींद से पहले खाना पचने का समय मिलना चाहिए।

प्रसिद्ध योग गुरू स्वामी लालजी महाराज शायद अकेले ऐसे योगाचार्य हैं जो स्वास्थ्य रक्षा में योग, जिम और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समन्वय की वकालत करते हैं। जिम में व्यायाम करते हुए यदि व्यक्ति श्वास-प्रक्रिया पर भी नियंत्रण करे तो व्यायाम का लाभ दोगुणा हो सकता है। बहुत से डाक्टर भी अब यह स्वीकार करते हैं कि यदि चिकित्सा विज्ञान में योग का भी समावेश हो जाए तो रोगी को ज्य़ादा लाभ होता है। डा. पूनम नायर द्वारा संचालित, चंडीगढ़ योग सभा और पीजीआई में ही इस संबंध में लगभग दो साल तक चले एक अध्ययन में यह पाया गया कि योग की सहायता से रोगियों में तनाव कम हुआ, रोग से छुटकारा पाने में आसानी हुई और लाभ स्थाई रहा। यही नहीं, पीजीआई में खुद डाक्टरों और नर्सों को भी जब योग क्रियाएं करवाई गईं तो उनमें तनाव की कमी आई और वे ज्यादा कुशलता से अपनी ड्यूटी निभा सकने में सक्षम पाये गए। स्पष्ट है कि हम अपने जीवन में योग और व्यायाम को भी उतार पायें तो जीवन कहीं ज्य़ादा स्वस्थ, संपन्न और खुशहाल हो सकता है। ***

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